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इस पुस्तक में 1857 की क्रान्ति को समग्रता के साथ एक नवीन ढंग से कतिपय नवीन तथ्यों के साथ बहुत ही रोचक शैली में सरल सहज एवं सुबोध ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक में 1857 की क्रान्ति को समग्रता के साथ एक नवीन ढंग से कतिपय नवीन तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है। अजीमुल्ला खाँ एवं रंगोजी बापू ने किस तरह इंग्लैण्ड में क्रान्ति की पूर्व-पीठिका तैयार की? 1857 की क्रान्ति में बैजाबाई सिंधिया की क्या भूमिका थी? नवाब वाज़िद अली साहब के मन्त्री अली नक्की खाँ ने किस प्रकार बैरकपुर छावनी के सैनिकों को क्रान्ति हेतु प्रेरित किया? 1857 की क्रान्ति के आरम्भ में गंगादीन की क्या भूमिका थी? कानपुर का सतीचैरा एवं बीबी घर हत्याकाण्ड एवं झाँसी के झोंकन बाग हत्याकाण्ड में किस तरह अंग्रेज़ मौत के घाट उतारे गए। बेग़म ज़ीनत महल ने किस प्रकार अपने पति बहादुरषाह जफ़र को क्रान्ति का नेतृत्व करने हेतु प्रेरित किया? बेग़म हज़रत महल ने किस प्रकार अपने सहयोगियों के साथ ब्रिटिष सेना के छक्के छुड़ाए? रानी लक्ष्मीबाई ने भारत को अपना देष मानते हुए किस प्रकार सर्वप्रथम स्वराज की बात की एवं टीकमगढ़ की रानी लड़ई सरकार के दीवान नत्थे खाँ के घमण्ड को चूर-चूर किया? जब सागर के किले में 370 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुष एवं बच्चों के घिरे होने का समाचार इंग्लैण्ड पहुँचा तो किस प्रकार उन्होंने सर्वश्रेष्ठ सेनापति ब्रिगेडियर जनरल ह्यूरोज़ को इन्हें मुक्त कराने भेजा? षाहगढ़ राजा बखतवली एवं बानपुर राजा मर्दनसिंह ने किस तरह अंग्रेज़ों को अत्यधिक परेषान किया कि वे उनके नाम से काँपने लगे। तात्या टोेपे ने अंग्रेज़ सेनापतियों को किस प्रकार खिजाया? ऐसा क्या हुआ कि अंग्रेज़ों ने रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे को सर्वश्रेष्ठ वीर होने की संज्ञा दी? किस प्रकार षडयन्त्र द्वारा अंग्रेज़ांे ने तात्या टोपे को पकड़वाया? उक्त समस्त घटना-क्रम को बहुत ही रोचक षैली में सरल सहज एवं सुबोध ढंग से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक में 1857 की क्रान्ति को समग्रता के साथ एक नवीन ढंग से कतिपय नवीन तथ्यों के साथ बहुत ही रोचक शैली में सरल सहज एवं सुबोध ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक में 1857 की क्रान्ति को समग्रता के साथ एक नवीन ढंग से कतिपय नवीन तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है। अजीमुल्ला खाँ एवं रंगोजी बापू ने किस तरह इंग्लैण्ड में क्रान्ति की पूर्व-पीठिका तैयार की? 1857 की क्रान्ति में बैजाबाई सिंधिया की क्या भूमिका थी? नवाब वाज़िद अली साहब के मन्त्री अली नक्की खाँ ने किस प्रकार बैरकपुर छावनी के सैनिकों को क्रान्ति हेतु प्रेरित किया? 1857 की क्रान्ति के आरम्भ में गंगादीन की क्या भूमिका थी? कानपुर का सतीचैरा एवं बीबी घर हत्याकाण्ड एवं झाँसी के झोंकन बाग हत्याकाण्ड में किस तरह अंग्रेज़ मौत के घाट उतारे गए। बेग़म ज़ीनत महल ने किस प्रकार अपने पति बहादुरषाह जफ़र को क्रान्ति का नेतृत्व करने हेतु प्रेरित किया? बेग़म हज़रत महल ने किस प्रकार अपने सहयोगियों के साथ ब्रिटिष सेना के छक्के छुड़ाए? रानी लक्ष्मीबाई ने भारत को अपना देष मानते हुए किस प्रकार सर्वप्रथम स्वराज की बात की एवं टीकमगढ़ की रानी लड़ई सरकार के दीवान नत्थे खाँ के घमण्ड को चूर-चूर किया? जब सागर के किले में 370 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुष एवं बच्चों के घिरे होने का समाचार इंग्लैण्ड पहुँचा तो किस प्रकार उन्होंने सर्वश्रेष्ठ सेनापति ब्रिगेडियर जनरल ह्यूरोज़ को इन्हें मुक्त कराने भेजा? षाहगढ़ राजा बखतवली एवं बानपुर राजा मर्दनसिंह ने किस तरह अंग्रेज़ों को अत्यधिक परेषान किया कि वे उनके नाम से काँपने लगे। तात्या टोेपे ने अंग्रेज़ सेनापतियों को किस प्रकार खिजाया? ऐसा क्या हुआ कि अंग्रेज़ों ने रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे को सर्वश्रेष्ठ वीर होने की संज्ञा दी? किस प्रकार षडयन्त्र द्वारा अंग्रेज़ांे ने तात्या टोपे को पकड़वाया? उक्त समस्त घटना-क्रम को बहुत ही रोचक षैली में सरल सहज एवं सुबोध ढंग से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक बुन्देलखण्ड का इतिहास में बुन्देलखण्ड के सीमांकन, नामकरण एवं बुन्देला साम्राज्यों की स्थापना को रोचक ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है।
अखिल भारतीय स्तर पर 1836 ई॰ में भारतीय स्वाधीनता का प्रथम प्रस्ताव चरखारी में पारित हुआ था। इसके बाद 1842 ई॰ के बुन्देला विद्रोह में जैतपुर नरेष पारीछत ने अपने सहयोगियों मधुकरशाह एवं हिरदेशाह के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए। इसी प्रकार 1857 ई॰ की क्रान्ति में बानपुर राजा मर्दन सिंह, शाहगढ़ राजा बखतवली एवं रानी लक्ष्मीबाई ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को अत्यधिक परेषान किया। बुन्देलखण्ड के अंग्रेज़ों ने सागर आकर जान बचाई। सागर के किले में पूरे 370 अंग्रेज़ों ने शरण ली। इस किले को चारों ओर से क्रान्तिकारियों ने घेर लिया। बड़ी मुश्किल से ब्रिगेेडियर जनरल ह्यूरोज ने बुन्देलखण्ड में 1857 ई॰ की क्रान्ति का दमन किया।
उक्त समस्त घटनाक्रम को प्रथम बार इस पुस्तक में सहज सरल एवं सुबोध ढंग से पिरोया गया है तथा बुन्देलखण्ड के इतिहास को प्रथम बार रोचक शैली में धाराप्रवाह ढंग से प्रस्तुत करने का हरसम्भव प्रयास किया गया है।
आशा है यह पुस्तक छात्रों, शोधार्थियों सहित इतिहास में रुचि रखने वाले आम नागरिकों को भी रूचिकर लगेगी।
प्रस्तुत पुस्तक बुन्देलखण्ड का इतिहास में बुन्देलखण्ड के सीमांकन, नामकरण एवं बुन्देला साम्राज्यों की स्थापना को रोचक ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है।
अखिल भारतीय स्तर पर 1836 ई॰ में भारतीय स्वाधीनता का प्रथम प्रस्ताव चरखारी में पारित हुआ था। इसके बाद 1842 ई॰ के बुन्देला विद्रोह में जैतपुर नरेष पारीछत ने अपने सहयोगियों मधुकरशाह एवं हिरदेशाह के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए। इसी प्रकार 1857 ई॰ की क्रान्ति में बानपुर राजा मर्दन सिंह, शाहगढ़ राजा बखतवली एवं रानी लक्ष्मीबाई ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को अत्यधिक परेषान किया। बुन्देलखण्ड के अंग्रेज़ों ने सागर आकर जान बचाई। सागर के किले में पूरे 370 अंग्रेज़ों ने शरण ली। इस किले को चारों ओर से क्रान्तिकारियों ने घेर लिया। बड़ी मुश्किल से ब्रिगेेडियर जनरल ह्यूरोज ने बुन्देलखण्ड में 1857 ई॰ की क्रान्ति का दमन किया।
उक्त समस्त घटनाक्रम को प्रथम बार इस पुस्तक में सहज सरल एवं सुबोध ढंग से पिरोया गया है तथा बुन्देलखण्ड के इतिहास को प्रथम बार रोचक शैली में धाराप्रवाह ढंग से प्रस्तुत करने का हरसम्भव प्रयास किया गया है।
आशा है यह पुस्तक छात्रों, शोधार्थियों सहित इतिहास में रुचि रखने वाले आम नागरिकों को भी रूचिकर लगेगी।
This volume deals with different issues related to religious practices and institutions in South Asia. It further seeks to substantiate the well-known opposition between the so-called orthodox sovereignty and the heterodox one, of which the so-called vratya-power seems to be a prime example.
This volume, Cross-cutting South Asian Studies: An Interdisciplinary Approach focuses on two themes that are central to Indological studies: religious practices and heterodox sovereignty.
The first part of this volume The Indian Ocean of Religious Practices: Past and Present deals with different issues related to religious practices and institutions in South Asia. These contributions share a similar theoretical perspective on religion: they all highlight, in various ways and through different disciplinary approaches, how, in order to fully understand religious practices and their inherent dynamics, it is essential to consider the power relations that continually imbue and shape them.
The second part Kings, Priests and Prominent Roles Interpreted through the Visual, Literary, Speculative, and Technical Indian Arts seeks to substantiate the well-known opposition between the so-called orthodox sovereignty and the heterodox one, of which the so-called vratya-power seems to be a prime example. Therefore, the target of the relevant contributions consists in focusing on different contexts where the king or chieftain, or merely the patron of the sacrifice, gains his temporary pre-eminence in an agonistic way which includes an important non-permanent ascetic dimension.
Mahatma Gandhi was a universal icon par excellence of truth, integrity, love and compassion. He was an epitome of non-violence, and his fondness for the well-being of humanity knew no bounds. He is the non-violence ambassador of India and Indianness across the globe. Many nations drew – still drawing – spirit and inspiration from him to achieve their freedom and to eradicate many a social malice from their society. He is a legacy of virtue and human value.
This coffee-table book makes one pictiorially travel through the different stages and realms in Gandhi’s life from him being a normal human being to a stature of a mahatma. Rather, from him being a child, a professional young lawyer to a towering personality in Mahatma Gandhi, the Indian political, social and spiritual leader who caused/forced the mighty British to give India, a country which was a treasure house for the British, Independence. It showcases the true image of the different facets of his life.
A mere glimpse across the book, brought out by the Gandhian Society, New Jersey, USA, on the occasion of Gandhi’s 150th birthday, makes one understand what Gandhi was and why is he so special to not only the Indians, but to any sane person throughout the world.
The book endeavours in recounting the mode in which Mohammed accomplished a tedious task of constructing a state and an empire out of the Arab tribes. It attempts to do justice to his intellectual ability and to observe towards him the respectful attitude which his greatness deserves. The volume is neither an apology nor an indictment.
The standpoint from which this book is written suggests and regards Mohammed as a great man, who solved a political problem of appalling difficulty – the construction of a state and an empire out of the Arab tribes. The book endeavours in recounting the mode in which Mohammed accomplished this, to do justice to his intellectual ability and to observe towards him the respectful attitude which his greatness deserves. The volume is neither an apology nor an indictment.
As far as the fecundity of the content is concerned, the book has taken a cue from different Arab sources and many scholarly works of earlier historians, efforts of many European scholars on Mohammedan antiquities and Islamic traditions. In condemning traditions unhistorical, the book has ordinarily considered the obelus of scholars like Ignaz Goldziher, Thodor Noldeke and Julius Wellhausen sufficient.
डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।
डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।
प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।
यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।
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