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This small book, written in a simple and lucid style, contains teachings of great men, gleanings from the scriptures, and examples from the epics and Puranas, and suggests easy solutions to the various problems faced by man in the present-day world of violence, wars, killings and disasters, and how to have a holistic approach to life.
Indian culture, and civilization in particular, is marked by a spiritual thought culture that is a good guidance to the ideal values of spirituality. The book is an effort to reveal the worth of cultivating spiritual values for a healthy, happy and peaceful life particularly in the modern, increasingly complex world of today. It comes as an inspiration to follow the path of simple living and high thinking, in the footsteps of saints and spiritual thinkers. This work deals with the path of dharma or righteousness, the meaning of a divine life, importance of spiritual knowledge, the great potential power in the universe which is not seen but which controls everything, and the nature of the universe. It emphasizes the need to control ones senses to achieve mastery over them, the need to keep the mind under control and the importance of the kind of food we consume to develop our inner qualities. Referring to the views of thinkers and philosophers of India like Shankaracarya, Sri Ramakrishna Paramahansa, Swami Vivekananda and others and to Indian legends and tales, it underlines the importance of cultivating interpersonal relations, the habit of renunciation, good company and meditation as a technique to self-fulfilment and peace.
This book vividly describes how one can achieve samadhi through transforming sex. It unveils the mystery of gods and goddesses and the worshipping of Shiva-lingam. It delves on topics such as why is sex sacred, kundalini and how to raise it, and the connection between sex and spirituality. It enlightens one how to keep the flame of love ever lit in a marriage and achieve the union of heart, mind and soul. It discovers the fountain of youth, a secret guarded for centuries.
Zen Kamasutra is loaded with esoteric wisdom on how to achieve samadhi through transforming sex. It uncovers the mystery of gods and goddesses, why Hindus worship the Shiva Lingam and why is sex sacred? What is Kundalini? How and why to raise the Kundalini? It explains the much-guarded secret of the gods the connection between sex and spirituality. It enlightens one on how to keep the flame of love ever lit in a marriage and achieve a union of heart, mind and soul. It clears up questions that a spiritual seeker has on mysteries of life and death. Also discover here the fountain of youth, another secret, guarded for centuries.
The book would appeal to all those who want to grow spiritually whilst perceiving their journey to be rational and logical. Apply the recommended practices to experience the magic yourself. This book also throws light on chakras by revealing that different chakras govern different qualities like leadership, wisdom, love, communication skills, creativity and intelligence, which can be developed.
पं˚ मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत सृष्टि प्रतिपादक अहोरावाद नामक ग्रन्थ का इस पुस्तक में विमर्श प्रस्तुत किया गया है। जिसमें अहोरावाद के विविध विषयों को आधार बनाकर आमिन् त विद्वानों द्वारा लिखे गये विमर्शात्मक शोधपत्रों का संकलन तथा अहोरात्रवाद ग्रन्थ की मूल प्रतिलिपि को समाहित किया गया है।
“अहोरात्र शब्द अहः एवं राि इन दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘अहः च रािः च’ ऐसा विग्रह द्वारा द्वन्द्व समास होकर ‘अहोरा’ शब्द निष्पन्न होता है। सृष्टि की उत्पत्ति विषयक अनेक सिद्धान्त आचार्यों द्वारा दिये गये हैं। उन सिद्धान्तों में से सृष्टि सम्बन्धी अहोराविषयक सिद्धान्त अहोरावाद के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के “नासदीय सूक्त” में सृष्टिविषयक अन्य सिद्धान्तों के साथ अहोरावाद का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अघमर्षण सूक्त (१०.१९०.३) में कहा गया है कि निमेष मा में ही जगत् को वश में करने वाले परमपिता ने दिन और रात का विधान किया। श्रीमद्भगवद्गीता (८.१७) के अनुसार ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युग तक की अवधिवाला और राि को भी एक हजार चतुर्युग तक की अवधि के रूप में जो जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में भी सृष्टि प्रक्रिया के प्रसंग में अहोरा शब्द का अनेक प्रयोग मिलता है। इस उपनिषद् के प्रारम्भ में यज्ञसम्बन्धी अश्व को आधार बना कर उसके अवयव का वर्णन किया गया है। तदनुसार उस यज्ञीय अश्व के सामने महिमारूप से दिन प्रकट हुआ। राि इसके पीछे महिमा रूप से प्रकट हुई। विद्यावाचस्पति पं˚ मधुसूदन ओझा ने सृष्टिविषयक अहोरावाद मत के विषय में विविध वैदिक सन्दर्भों का आलोकन कर अहोरावाद नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। यह ग्रन्थ कुल १२ अधिकाराें में विभक्त है। प्रतिज्ञा एवं उपसंहार को छोड़कर इस ग्रन्थ के १० अधिकाराें में ज्ञान-अज्ञान, शुक्ल-कृष्ण, प्रकाश-अन्धकार, भाव-अभाव, सृष्टि-प्रलय, द्यावा-पृथिवी, ऋत-सत्य, सप्ताह, यज्ञ और चातुर्हो ये दस विषय वर्णित हैं। अहोरावादविमर्श नामक इस ग्रन्थ में विद्यावाचस्पति पं˚ मधुसूदन ओझाजी के द्वारा प्रणीत सृष्टि प्रतिपादक अहोरावाद नामक ग्रन्थ का विमर्श प्रस्तुत किया गया है। जिसमें अहोरावाद के विविध विषयों को आधार बनाकर आमिन् त विद्वानों के द्वारा लिखे गये विमर्शात्मक शोधपत्रों का संकलन तथा अहोरात्रवाद ग्रन्थ की मूल प्रतिलिपि को कारिकानुक्रमणिका एवं शब्दानुक्रमणिका के साथ समाहित किया गया है।”
प्रस्तुत पुस्तक मेरे जीवन के बीते हुए चंद अनुभवों, विचारों तथा भावों का, कविताओं, ग़ज़लों तथा अशआर के रूप में एक संकलन है। विभिन्न परिस्थतियों में जन्मे हृदयागार, विभिन्न रंगछटा लिए हुए एक गुल्दस्ते के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है, इस आशा के साथ कि आप सभी इस पुस्तक को सहर्ष स्वीकार करेंगें।
The Gaṇitāmr̥talaharī of Rāmakr̥ṣṇa Daivajña, a seventeenth-century scholar, is a commentary on the Līlāvatī of Bhāskarācārya II, which is a splendid compilation of concepts, formulae and examples in arithmetic, geometry and algebra of the twelfth century ce. The present edition, which is critically edited with an Introduction, is based on the collation of eight manuscripts collected from different locations.
The experiences and knowledge from our past are recorded in manuscripts which have been handed down to us over several thousand years. The Government of India, through the Department of Culture, took note of the importance of this vast tangible heritage and, in order to preserve and conserve as well as to make access to this wealth easy, established the National Mission for Manuscripts (NMM). In order to disseminate the knowledge content of manuscripts, the Mission has taken up several programmes such as lectures, seminars and workshops. The Mission has published the proceedings of the above-said programmes under the following series: “Samrakshika” (on conservation), “Tattvabodha” (comprising lectures based on manuscripts delivered by eminent scholars), “Samiksika” (research-oriented papers presented in the seminars), “Kritibodha” (transcribed and edited texts prepared at advanced level manuscriptology workshops conducted by NMM) and “Prakashika” (publication of rare, unpublished manuscripts).
डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।
डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।
दार्शनिक समीक्षा का सत्याग्रह नामधेय यह कृति मेरे द्वारा दिए गए व्याख्यानों का एक परिमार्जित संग्रह है। यह सभी व्याख्यान भारत के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में 2017-18 के दौरान भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् के अतिथि आचार्य (विजटिंग प्रोफेसर) के रूप में दिए गए थे। ऐसे संग्रह-ग्रन्थ में विचार केन्द्रित अन्विति नहीं होती, और यदि होती भी है तो उसे विचारक-केन्द्रित अन्विति के रूप में ही परखा जा सकता है। विचारों में विचारक-केन्द्रित अन्विति अनुप्रास युक्त पदों से निर्मित एक वाक्य की तरह होती है जिसके अलग-अलग पद आनुप्रासिक सौन्दर्य के साथ अर्थ का अभिधान करते हैं। इसी प्रकार का आनुप्रासिक सौन्दर्य एक व्यक्ति के बहुविध वैचारिक उपक्रमों की सार्थकता होती है। दार्शनिक समीक्षा के रूप में समाकलित इन सभी व्याख्यानों की अन्विति उनके सत्याग्रही होने में है। विचार का सत्य विचारों के मूलगामी अर्थ को उद्घाटित करना है। समीक्षा जब इस उद्देश्य के साथ प्रवर्तित होती है तभी “सत्याग्रह” उसका विशेषण बनता है।
ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त भारत के महान् ज्योतिर्विद् एवम् गणितज्ञ, आचार्य ब्रह्मगुप्त की सातवीं शताब्दी की प्रथम रचना है। आर्य छन्दों में वर्णित ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के दो अध्याय (18 एवं 24) गणित एवं कुट्टक गणित के सूाें को स्थापित करते हैं। गणित की संख्या प्रणाली में ब्रह्मगुप्त का योगदान अद्वितीय है। किसी संख्या को उसी से घटाने पर शून्य प्राप्त होता है। शून्य की इस अवधारणा के साथ उन्होंने धनात्मक, ऋणात्मक एवं शून्य, इन तीनों प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियायों (परिक्रम) की व्याख्या की है। आज की मान्यता के विपरीत उनका मानना था कि शून्य से शून्य को विभाजित करने पर शून्य प्राप्त होता है। गणितीय अध्याय में आचार्य ने बीस गणितीय संक्रियाओं (परिक्रम), यथा संकलित (योग) आदि एवं छाया की माप जैसे नित्य-प्रति के आठ व्यवहारों का उल्लेख किया है। तत्कालीन आवश्यकता के अनुरूप आचार्य ने मिश्रक, श्रेढ़ी, क्षेम् (ज्यामिति), चिति, क्राकचिक (काष्ठकला), राशि (अनाज का ढेर), छाया से सम्बन्धित 8 व्यवहार गणित के सू स्थापित किए। मिश्रक में वर्णित मिश्रधन से ब्याज की गणना हेतु वर्ग समीकरण के हल की विधि पहली बार स्पष्ट की गई है। ब्रह्मगुप्त ने समानान्तर, ज्यामितीय श्रेणियों, प्राकृत संख्याओं एवं उनके वर्गों तथा घनों के n पदों के योग का सू स्थापित किया है। कुट्टक गणित (बीजगणित) में रैखिक अनिर्धार्य समीकरणों, ax−by = c का हल प्रस्तुत है। ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों, Nx2 + 1 = y2 के हल की विधि भी प्रस्तुत की है।
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