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    डाॅ॰ हरीसिंह गौर (Dr. Harisingh Gaur) by: Brajesh Kumar Srivastava Original price was: ₹550.00.Current price is: ₹495.00.

    डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
    डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।

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    ब्रह्मस्फुट सिद्धांत (Brahmasphuta siddhanta) by: Kedar Nath Shukla Original price was: ₹320.00.Current price is: ₹288.00.

    ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त भारत के महान् ज्योतिर्विद् एवम् गणितज्ञ, आचार्य ब्रह्मगुप्त की सातवीं शताब्दी की प्रथम रचना है। आर्य छन्दों में वर्णित ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के दो अध्याय (18 एवं 24) गणित एवं कुट्टक गणित के सूाें को स्थापित करते हैं। गणित की संख्या प्रणाली में ब्रह्मगुप्त का योगदान अद्वितीय है। किसी संख्या को उसी से घटाने पर शून्य प्राप्त होता है। शून्य की इस अव​धारणा के साथ उन्होंने धनात्मक, ऋणात्मक एवं शून्य, इन तीनों प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियायों (परिक्रम) की व्याख्या की है। आज की मान्यता के विपरीत उनका मानना था कि शून्य से शून्य को विभाजित करने पर​ शून्य प्राप्त होता है। गणितीय अध्याय में आचार्य ने बीस गणितीय संक्रियाओं (परिक्रम), यथा संकलित (योग) आदि एवं छाया की माप जैसे नित्य-प्रति के आठ व्यवहारों का उल्लेख किया है। तत्कालीन आवश्यकता के अनुरूप आचार्य ने मिश्रक, श्रेढ़ी, क्षेम् (ज्यामिति), चिति, क्राकचिक (काष्ठकला), राशि (अनाज का ढेर), छाया से सम्बन्धित 8 व्यवहार गणित के सू स्थापित किए। मिश्रक में वर्णित मिश्रधन से ब्याज की गणना हेतु वर्ग समीकरण के हल की विधि पहली बार स्पष्ट की ग​ई है। ब्रह्मगुप्त ने समानान्तर, ज्यामितीय श्रेणियों, प्राकृत संख्याओं एवं उनके वर्गों तथा घनों के n पदों के योग का सू स्थापित किया है। कुट्टक गणित (बीजगणित) में रैखिक अनिर्धार्य समीकरणों, ax−by = c का हल प्रस्तुत है। ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों, Nx2 + 1 = y2 के हल की विधि भी प्रस्तुत की है।

     

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    भारतीय राष्ट्रवाद (Bharatiya Rashtravad) (PB) by: Vishwanath Mishra Original price was: ₹480.00.Current price is: ₹432.00.

    इस पुस्तक में राष्ट्रवाद की पश्चिमी एवं भारतीय अवधारणा के अनुसार व्याख्या की गई है तथा दोनों में अन्तर्विरोधों एवं विशिष्टताओं को रेखांकित किया गया है। पश्चिम में परिप्रेक्ष्य रहित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही क्यों परिणत होता है और वह मानवतावाद के विरुद्ध क्यों प्रवृत्त है, यह इस पुस्तक का प्रथम प्रतिपाद्य विषय है। अद्वैत दर्शन पर आधारित सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद मानवतावाद की ओर कैसे अग्रसर होता है यह पुस्तक का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है। राष्ट्रवाद के प्रायः सभी प्रभावी विमर्शों की चर्चा के साथ-साथ यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद का एक अवधारणात्मक विमर्श प्रस्तुत करती हैए जिसे सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है। इस पुस्तक में आधुनिकता को भारत विभाजन के मुख्य कारण के रूप में स्थापित किया गया है।

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    भारतीय राष्ट्रवाद (Bhartiya Rashtavaad) by: Vishwanath Mishra Original price was: ₹800.00.Current price is: ₹720.00.

    इस पुस्तक में राष्ट्रवाद की पश्चिमी एवं भारतीय अवधारणा के अनुसार व्याख्या की गई है तथा दोनों में अन्तर्विरोधों एवं विशिष्टताओं को रेखांकित किया गया है। पश्चिम में परिप्रेक्ष्य रहित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही क्यों परिणत होता है और वह मानवतावाद के विरुद्ध क्यों प्रवृत्त है, यह इस पुस्तक का प्रथम प्रतिपाद्य विषय है। अद्वैत दर्शन पर आधारित सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद मानवतावाद की ओर कैसे अग्रसर होता है यह पुस्तक का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है। राष्ट्रवाद के प्रायः सभी प्रभावी विमर्शों की चर्चा के साथ-साथ यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद का एक अवधारणात्मक विमर्श प्रस्तुत करती हैए जिसे सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है। इस पुस्तक में आधुनिकता को भारत विभाजन के मुख्य कारण के रूप में स्थापित किया गया है।

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    प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।

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    भारतीय संघ (Bharatiya Sangh) (PB) by: कुलदीप शर्मा, विश्वनाथ मिश्र, Original price was: ₹480.00.Current price is: ₹432.00.

    यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।

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    प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।

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    भारतीय संघ Bharatiya Sangh by: कुलदीप शर्मा, विश्वनाथ मिश्र, Original price was: ₹700.00.Current price is: ₹630.00.

    यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।

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    वाक्यपदीय तृतीय खंड {Vakyapadiya (Khand-3)} by: मिथिलेश चतुर्वेदी Original price was: ₹1,350.00.Current price is: ₹1,215.00.

    वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में, जिसे स्वतन्त्र रूप से प्रकीर्णक भी कहा गया हैे, अपोद्धृत पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत खण्ड में इसी काण्ड के क्रियासमुद्देश से लिङ्गसमुद्देश तक कारिका और उस पर हेलाराजकृत प्रकीर्णकप्रकाश का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक ने कहीं कहीं अर्थसंगति की दृष्टि से मूल पाठ में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और मूल की व्याख्या के लिये विस्तृत टिप्पणियाँ भी जोड़ी हैं।

    क्रियासमुद्देश में भर्तृहरि ने क्रिया की अवधारणा पर विस्तार से विचार किया है। पाणिनि धातु की रूपात्मक परिभाषा देते हैं। भर्तृहरि के लक्षण के अनुसार साध्यरूप क्रमवान् अर्थ क्रिया है। इस लक्षण में प्रश्न उठता है कि “अस्ति” क्रिया की वाच्य कैसे है? सत्ता तो नित्य है, साध्य नहीं है और क्रमशून्य है। भर्तृहरि समाधान में कहते हैं कि “अस्ति” में कालानुपाती रूप का बोध होता है।

    तृतीय काण्ड में यद्यपि पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है तथापि भर्तृहरि की दार्शनिक दृष्टि का परिचय इस काण्ड में भी सर्वत्र मिलता है। जन्म और नाश, इन दोनों भाव-विकारों का निरूपण भर्तृहरि परिणामवाद और विवर्तवाद दोनों दृष्टियों से करते हैं। वैशेषिक दर्शन में काल द्रव्य है जो एक, नित्य और विभु है। भर्तृहरि के मत में काल ब्रह्म की मुख्य शत्तिफ़ है जो सभी शत्तिफ़यों पर नियन्त्रण रखती है। वृत्ति में इसे ब्रह्म की स्वातन्=यशत्तिफ़ कहा है। काल यद्यपि एक ही है किन्तु उपाधियों के भेद से उसमें अनेकत्व का व्यवहार होता है। वे काल से सम्बन्धित कुछ भाषिक प्रयोगों की चर्चा भी करते हैं। लिङ्गसमुद्देश में वैयाकरणों की लिङ्गविषयक अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इस विषय में वैयाकरण का अभिमत सिद्धान्त यही है कि लिङ्ग वस्तुधर्म है और सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों की अवस्था-विशेष है। इसी प्रकार अन्य अवधारणाओं से सम्बद्ध अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर इन समुद्देशों में चर्चा की गई है।

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    The Svayambhū Purāṇa , an important text on Nepalese Buddhism, stands as a testament to the rich spiritual and cultural heritage of the medieval Nepal Valley. It brings to life a vivid panorama of legends, each contributing to the religious identity and historical narrative of the region.

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    स्वयंभूपुराणम् (svayambhupuranam) by: Kashinath Nyaupane, Sharada Poudel, Original price was: ₹850.00.Current price is: ₹765.00.

    The Svayambhū Purāṇa is an important text on Nepalese Buddhism, magnifying the shrine of Svayambhū. Its content is believed to have been delivered as a sermon by Śākyamuni Buddha on the Mañjuśrī Hill.

    The volume deliberates on ten key points such as the narrative of the self-generated birth of the Svayambhū; mention of the Vipaśvī, a primordial Buddha; the emergence of a radiant and bejewelled lotus from the dark waters of the lake, foreshadowing the eventual manifestation of the Buddha’s shrine (caitya) at its core; delineation of devotional practices and religious observances; civilization of Mañjuśrī; and so on.

    The Svayambhū Purāṇa stands as a testament to the rich spiritual and cultural heritage of the medieval Nepal Valley and unveils the sophisticated nature of Newar Buddhist Sanskrit literary output of the fifteenth century. It brings to life a vivid panorama of legends, contributing to the religious identity and historical narrative of the region. It holds an enduring influence on the religious beliefs and practices of the Newar Buddhist community. This volume, in a nutshell, is an enhancement in the accessibility of the text.

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