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    भारतीय राष्ट्रवाद by: Vishwanath Mishra 432.00720.00

    इस पुस्तक में राष्ट्रवाद की पश्चिमी एवं भारतीय अवधारणा के अनुसार व्याख्या की गई है तथा दोनों में अन्तर्विरोधों एवं विशिष्टताओं को रेखांकित किया गया है। पश्चिम में परिप्रेक्ष्य रहित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही क्यों परिणत होता है और वह मानवतावाद के विरुद्ध क्यों प्रवृत्त है, यह इस पुस्तक का प्रथम प्रतिपाद्य विषय है। अद्वैत दर्शन पर आधारित सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद मानवतावाद की ओर कैसे अग्रसर होता है यह पुस्तक का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है। राष्ट्रवाद के प्रायः सभी प्रभावी विमर्शों की चर्चा के साथ-साथ यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद का एक अवधारणात्मक विमर्श प्रस्तुत करती हैए जिसे सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है। इस पुस्तक में आधुनिकता को भारत विभाजन के मुख्य कारण के रूप में स्थापित किया गया है।

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    प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।

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    भारतीय संघ by: कुलदीप शर्मा, विश्वनाथ मिश्र, 432.00630.00

    यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।

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    वाक्यपदीय तृतीय काण्ड (प्रकीर्णककाण्ड) by: मिथिलेश चतुर्वेदी 1,215.00

    वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में, जिसे स्वतन्त्र रूप से प्रकीर्णक भी कहा गया हैे, अपोद्धृत पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत खण्ड में इसी काण्ड के क्रियासमुद्देश से लिङ्गसमुद्देश तक कारिका और उस पर हेलाराजकृत प्रकीर्णकप्रकाश का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक ने कहीं कहीं अर्थसंगति की दृष्टि से मूल पाठ में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और मूल की व्याख्या के लिये विस्तृत टिप्पणियाँ भी जोड़ी हैं।

    क्रियासमुद्देश में भर्तृहरि ने क्रिया की अवधारणा पर विस्तार से विचार किया है। पाणिनि धातु की रूपात्मक परिभाषा देते हैं। भर्तृहरि के लक्षण के अनुसार साध्यरूप क्रमवान् अर्थ क्रिया है। इस लक्षण में प्रश्न उठता है कि “अस्ति” क्रिया की वाच्य कैसे है? सत्ता तो नित्य है, साध्य नहीं है और क्रमशून्य है। भर्तृहरि समाधान में कहते हैं कि “अस्ति” में कालानुपाती रूप का बोध होता है।

    तृतीय काण्ड में यद्यपि पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है तथापि भर्तृहरि की दार्शनिक दृष्टि का परिचय इस काण्ड में भी सर्वत्र मिलता है। जन्म और नाश, इन दोनों भाव-विकारों का निरूपण भर्तृहरि परिणामवाद और विवर्तवाद दोनों दृष्टियों से करते हैं। वैशेषिक दर्शन में काल द्रव्य है जो एक, नित्य और विभु है। भर्तृहरि के मत में काल ब्रह्म की मुख्य शत्तिफ़ है जो सभी शत्तिफ़यों पर नियन्त्रण रखती है। वृत्ति में इसे ब्रह्म की स्वातन्=यशत्तिफ़ कहा है। काल यद्यपि एक ही है किन्तु उपाधियों के भेद से उसमें अनेकत्व का व्यवहार होता है। वे काल से सम्बन्धित कुछ भाषिक प्रयोगों की चर्चा भी करते हैं। लिङ्गसमुद्देश में वैयाकरणों की लिङ्गविषयक अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इस विषय में वैयाकरण का अभिमत सिद्धान्त यही है कि लिङ्ग वस्तुधर्म है और सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों की अवस्था-विशेष है। इसी प्रकार अन्य अवधारणाओं से सम्बद्ध अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर इन समुद्देशों में चर्चा की गई है।

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