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इस ग्रन्थ का मुख्य विषय नरक, पशु, प्रेत, मनुष्य, और देव नामक पाँच गतियों में कर्म के आधार पर होने वाले प्राणियों के जन्म का कारण तथा वहाँ होने वाले सुख और दुःख को सरल भाषा, पारलौकिक विषय-वस्तु, एवं कुछ अतिरजनाओं के साथ बतलाना है।
पञ्चगतिदीपनी पालि ब्रह्माण्डीय साहित्य (Pāli Cosmological Literature) का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। मुख्यतः पञ्चगतिदीपनी बौद्ध-संस्कृत ग्रन्थ षड्गतिकारिका का पालि भाषान्तर है। परम्परा के अनुसार बौद्ध महाकवि अश्वघोष को षड्गतिकारिका का रचनाकार माना जाता है। भारत में इस ग्रन्थ का सम्बन्ध वात्सीयपुत्रीय-सम्मितीय सम्प्रदाय से था। कालान्तर में नौवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच षड्गतिकारिका का चीनी, तिब्बती, एवं पालि में भाषान्तर किया गया। षड्गतिकारिका का भाषान्तर पालि में सबसे पहले छगतिदीपनी के नाम से बारहवीं शताब्दी के आसपास म्यांमार (बर्मा) में किया गया। पुनः इस ग्रन्थ को थेरवाद परम्परा-सम्मत बनाने के लिए छगतिदीपनी से पञ्चगतिदीपनी के रूप में पुनरुद्धार किया गया। सम्प्रति पाँच कण्ड में विभाजित पञ्चगतिदीपनी में 114 गाथाएं हैं। इस ग्रन्थ का मुख्य विषय नरक, पशु, प्रेत, मनुष्य, और देव नामक पाँच गतियों में कर्म के आधार पर होने वाले प्राणियों के जन्म का कारण तथा वहाँ होने वाले सुख और दुःख को सरल भाषा, पारलौकिक विषय-वस्तु, एवं कुछ अतिरजनाओं के साथ बतलाना है। प्रस्तुत आलोचनात्मक संस्करण पञ्चगतिदीपनी का देवनागरी पाठ, हिन्दी अनुवाद, टिप्पणी, मूल स्रोत, एवं भूमिका के रूप में पालि ब्रह्माण्डीय साहित्य पर एक विशद विवरण प्रस्तुत करता है।
यह पुस्तक भाषा और ज्ञान के गहरे दार्शनिक विश्लेषण को प्रस्तुत करती है। इसमें वाक्यपदीय के विभिन्न खंडों के आधार पर भारतीय दार्शनिक परंपराओं का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है।
“भाषा भावाभावसाधारण है । सभी ज्ञान, सम्प्रत्यय या विचार भाषानुविद्ध होते हैं और इसीलिए भाषा का विश्लेषण सम्प्रत्यय, ज्ञान, अर्थ या विचार का भी विश्लेषण होता है। मूल्यमीमांसीय (axiological) दृष्टि से ज्ञान परम मूल्य है। बोधमूलक (cognitive) दृष्टि से ज्ञान प्रकाश है, चेतन-प्रकाश है; यह शब्द-प्रकाश है, ज्ञान है जो स्वयं का एवं विषयों का भी प्रकाशक है। भाषा ही ज्ञान अाैर विचारों की निर्धारक है। ध्वन्यात्मक दृष्टि से यह वैखरी शब्द है जो बाह्य पदार्थों का संकेतक तथ स्फोट शब्द की अभिव्यक्ति का हेतु है। अखण्ड शक्तिरूप होने से इसे शब्द कहा जाता है। यह हमारे कर्मों/कर्त्तव्यों का प्रेरक है। तत्त्वमीमांसीय (metaphysical) दृष्टि से यह सत्य, परमार्थ सत्य है और सत्यानुसन्धान का एकमा विषय है। ज्ञान से आत्मैक्य प्राप्त करना मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
सभी सम्प्रत्ययात्मक ज्ञान भाषा से प्रकाशित होते हैं और भाषा से अनुविद्ध होते हैं। शब्द का तात्त्विक आधार, शब्द-शक्ति, शक्तिग्रह, भाषा की मूल इकाई, ध्वन्यात्मक शब्द, स्फोट शब्द, अर्थ, अर्थ के प्रकार — मुख्य, गौण तथा नान्तरीयकार्थ — विभिन्न प्रकार के अर्थों के निर्धारण के उपाय, भाषा और अर्थ के बीच पारस्परिक सम्बन्ध, वाक्य–वाक्यार्थ तथा शाब्दबोध, इस पुस्तक के आरम्भिक भाग का प्रमुख प्रतिपाद्य है। वाक्यपदीय खण्ड एक तथा दो की सभी दार्शनिक समस्याओं पर विभिन्न भारतीय सम्प्रदायाें के विचारों का समीक्षापूर्वक निर्णयात्मक विवेचन इस पुस्तक में किया गया है।
वाक्यपदीय के तृतीय खण्ड में विवेचित समुद्देशों यथा जाति पदार्थ, व्यक्ति पदार्थ, सम्बन्ध, साधन, वृत्ति, पुरुष, संख्या, देश, काल, क्रिया की अवधारणाओं पर विभिन्न भारतीय सम्प्रदायाें के विचारों की समीक्षापूर्वक प्रस्तुति इस पुष्तक में की गई है। पुस्तक की भाषा सरल है और प्रस्तुति शाानुसारी होलिस्टिक (holistic) विधा से की गई है। यह पुस्तक अध्येताओं के दार्शनिक ज्ञान की अभिवृद्धि करने तथा भाषा दर्शन के अध्ययन के प्रति उनकी रूचि बढ़ाने में निश्चित रूप सें सफल हाेगी।
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