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प्रस्तुत पुस्तक मेरे जीवन के बीते हुए चंद अनुभवों, विचारों तथा भावों का, कविताओं, ग़ज़लों तथा अशआर के रूप में एक संकलन है। विभिन्न परिस्थतियों में जन्मे हृदयागार, विभिन्न रंगछटा लिए हुए एक गुल्दस्ते के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है, इस आशा के साथ कि आप सभी इस पुस्तक को सहर्ष स्वीकार करेंगें।
डा. हरीसिंह गौर ने एक गरीब परिवार से उठकर अपने परिश्रम, बुद्धिमानी, लगनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास एवं दृढ़ निश्चय जैसे गुणों के बल पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी जैसे उस समय के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से शिक्षा प्राप्त की। निरन्तर प्रगति करते हुये अपने समय के बुद्धिजीवों की प्रथम पंक्ति में आ गये। अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कवितायें एवं निबंध लिखे, कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के प्रख्यात ग्रन्थ लिखे एवं धर्म के क्षेत्र में ‘स्प्रिट आॅफ बुद्धिज्म’ जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिखी। वे उच्च कोटि के विधिवेत्ता थे, उस दौर में वकालात करते हुये सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाते हुये विधान परिषद् में समाज सुधार एवं महिलाओं की स्वतंत्रता विषयक अधिनियम पारित कराये। संस्थापक वाइस चांसलर के रूप में कुशल प्रशासक एवं प्रबुद्ध शिक्षाशास्त्री होने का परिचय देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को संगठित किया। अपने जीवनभर की कमाई का सदुपयोग विद्यादान में करते हुये सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की और महादानी कहलाये।
डा. गौर का सम्पूर्ण जीवन अनुकरणीय है। पुस्तक को सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में लिखकर यथासंभव प्रेरणास्पद बनाने का प्रयास किया गया है। छात्र, शोधार्थी एवं आम पाठक इसे पढ़कर डा. गौर के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुये अपने जीवन एवं कर्मक्षेत्र में सफलता प्राप्त करें, इसी आशा से पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक इतनी रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है कि इसे पढ़कर आप अपने आपको धन्य महसूस करेंगे।
दार्शनिक समीक्षा का सत्याग्रह नामधेय यह कृति मेरे द्वारा दिए गए व्याख्यानों का एक परिमार्जित संग्रह है। यह सभी व्याख्यान भारत के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में 2017-18 के दौरान भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् के अतिथि आचार्य (विजटिंग प्रोफेसर) के रूप में दिए गए थे। ऐसे संग्रह-ग्रन्थ में विचार केन्द्रित अन्विति नहीं होती, और यदि होती भी है तो उसे विचारक-केन्द्रित अन्विति के रूप में ही परखा जा सकता है। विचारों में विचारक-केन्द्रित अन्विति अनुप्रास युक्त पदों से निर्मित एक वाक्य की तरह होती है जिसके अलग-अलग पद आनुप्रासिक सौन्दर्य के साथ अर्थ का अभिधान करते हैं। इसी प्रकार का आनुप्रासिक सौन्दर्य एक व्यक्ति के बहुविध वैचारिक उपक्रमों की सार्थकता होती है। दार्शनिक समीक्षा के रूप में समाकलित इन सभी व्याख्यानों की अन्विति उनके सत्याग्रही होने में है। विचार का सत्य विचारों के मूलगामी अर्थ को उद्घाटित करना है। समीक्षा जब इस उद्देश्य के साथ प्रवर्तित होती है तभी “सत्याग्रह” उसका विशेषण बनता है।
इस ग्रन्थ का मुख्य विषय नरक, पशु, प्रेत, मनुष्य, और देव नामक पाँच गतियों में कर्म के आधार पर होने वाले प्राणियों के जन्म का कारण तथा वहाँ होने वाले सुख और दुःख को सरल भाषा, पारलौकिक विषय-वस्तु, एवं कुछ अतिरजनाओं के साथ बतलाना है।
पञ्चगतिदीपनी पालि ब्रह्माण्डीय साहित्य (Pāli Cosmological Literature) का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। मुख्यतः पञ्चगतिदीपनी बौद्ध-संस्कृत ग्रन्थ षड्गतिकारिका का पालि भाषान्तर है। परम्परा के अनुसार बौद्ध महाकवि अश्वघोष को षड्गतिकारिका का रचनाकार माना जाता है। भारत में इस ग्रन्थ का सम्बन्ध वात्सीयपुत्रीय-सम्मितीय सम्प्रदाय से था। कालान्तर में नौवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच षड्गतिकारिका का चीनी, तिब्बती, एवं पालि में भाषान्तर किया गया। षड्गतिकारिका का भाषान्तर पालि में सबसे पहले छगतिदीपनी के नाम से बारहवीं शताब्दी के आसपास म्यांमार (बर्मा) में किया गया। पुनः इस ग्रन्थ को थेरवाद परम्परा-सम्मत बनाने के लिए छगतिदीपनी से पञ्चगतिदीपनी के रूप में पुनरुद्धार किया गया। सम्प्रति पाँच कण्ड में विभाजित पञ्चगतिदीपनी में 114 गाथाएं हैं। इस ग्रन्थ का मुख्य विषय नरक, पशु, प्रेत, मनुष्य, और देव नामक पाँच गतियों में कर्म के आधार पर होने वाले प्राणियों के जन्म का कारण तथा वहाँ होने वाले सुख और दुःख को सरल भाषा, पारलौकिक विषय-वस्तु, एवं कुछ अतिरजनाओं के साथ बतलाना है। प्रस्तुत आलोचनात्मक संस्करण पञ्चगतिदीपनी का देवनागरी पाठ, हिन्दी अनुवाद, टिप्पणी, मूल स्रोत, एवं भूमिका के रूप में पालि ब्रह्माण्डीय साहित्य पर एक विशद विवरण प्रस्तुत करता है।
ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त भारत के महान् ज्योतिर्विद् एवम् गणितज्ञ, आचार्य ब्रह्मगुप्त की सातवीं शताब्दी की प्रथम रचना है। आर्य छन्दों में वर्णित ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के दो अध्याय (18 एवं 24) गणित एवं कुट्टक गणित के सूाें को स्थापित करते हैं। गणित की संख्या प्रणाली में ब्रह्मगुप्त का योगदान अद्वितीय है। किसी संख्या को उसी से घटाने पर शून्य प्राप्त होता है। शून्य की इस अवधारणा के साथ उन्होंने धनात्मक, ऋणात्मक एवं शून्य, इन तीनों प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियायों (परिक्रम) की व्याख्या की है। आज की मान्यता के विपरीत उनका मानना था कि शून्य से शून्य को विभाजित करने पर शून्य प्राप्त होता है। गणितीय अध्याय में आचार्य ने बीस गणितीय संक्रियाओं (परिक्रम), यथा संकलित (योग) आदि एवं छाया की माप जैसे नित्य-प्रति के आठ व्यवहारों का उल्लेख किया है। तत्कालीन आवश्यकता के अनुरूप आचार्य ने मिश्रक, श्रेढ़ी, क्षेम् (ज्यामिति), चिति, क्राकचिक (काष्ठकला), राशि (अनाज का ढेर), छाया से सम्बन्धित 8 व्यवहार गणित के सू स्थापित किए। मिश्रक में वर्णित मिश्रधन से ब्याज की गणना हेतु वर्ग समीकरण के हल की विधि पहली बार स्पष्ट की गई है। ब्रह्मगुप्त ने समानान्तर, ज्यामितीय श्रेणियों, प्राकृत संख्याओं एवं उनके वर्गों तथा घनों के n पदों के योग का सू स्थापित किया है। कुट्टक गणित (बीजगणित) में रैखिक अनिर्धार्य समीकरणों, ax−by = c का हल प्रस्तुत है। ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों, Nx2 + 1 = y2 के हल की विधि भी प्रस्तुत की है।
यह पुस्तक भाषा और ज्ञान के गहरे दार्शनिक विश्लेषण को प्रस्तुत करती है। इसमें वाक्यपदीय के विभिन्न खंडों के आधार पर भारतीय दार्शनिक परंपराओं का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है।
“भाषा भावाभावसाधारण है । सभी ज्ञान, सम्प्रत्यय या विचार भाषानुविद्ध होते हैं और इसीलिए भाषा का विश्लेषण सम्प्रत्यय, ज्ञान, अर्थ या विचार का भी विश्लेषण होता है। मूल्यमीमांसीय (axiological) दृष्टि से ज्ञान परम मूल्य है। बोधमूलक (cognitive) दृष्टि से ज्ञान प्रकाश है, चेतन-प्रकाश है; यह शब्द-प्रकाश है, ज्ञान है जो स्वयं का एवं विषयों का भी प्रकाशक है। भाषा ही ज्ञान अाैर विचारों की निर्धारक है। ध्वन्यात्मक दृष्टि से यह वैखरी शब्द है जो बाह्य पदार्थों का संकेतक तथ स्फोट शब्द की अभिव्यक्ति का हेतु है। अखण्ड शक्तिरूप होने से इसे शब्द कहा जाता है। यह हमारे कर्मों/कर्त्तव्यों का प्रेरक है। तत्त्वमीमांसीय (metaphysical) दृष्टि से यह सत्य, परमार्थ सत्य है और सत्यानुसन्धान का एकमा विषय है। ज्ञान से आत्मैक्य प्राप्त करना मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
सभी सम्प्रत्ययात्मक ज्ञान भाषा से प्रकाशित होते हैं और भाषा से अनुविद्ध होते हैं। शब्द का तात्त्विक आधार, शब्द-शक्ति, शक्तिग्रह, भाषा की मूल इकाई, ध्वन्यात्मक शब्द, स्फोट शब्द, अर्थ, अर्थ के प्रकार — मुख्य, गौण तथा नान्तरीयकार्थ — विभिन्न प्रकार के अर्थों के निर्धारण के उपाय, भाषा और अर्थ के बीच पारस्परिक सम्बन्ध, वाक्य–वाक्यार्थ तथा शाब्दबोध, इस पुस्तक के आरम्भिक भाग का प्रमुख प्रतिपाद्य है। वाक्यपदीय खण्ड एक तथा दो की सभी दार्शनिक समस्याओं पर विभिन्न भारतीय सम्प्रदायाें के विचारों का समीक्षापूर्वक निर्णयात्मक विवेचन इस पुस्तक में किया गया है।
वाक्यपदीय के तृतीय खण्ड में विवेचित समुद्देशों यथा जाति पदार्थ, व्यक्ति पदार्थ, सम्बन्ध, साधन, वृत्ति, पुरुष, संख्या, देश, काल, क्रिया की अवधारणाओं पर विभिन्न भारतीय सम्प्रदायाें के विचारों की समीक्षापूर्वक प्रस्तुति इस पुष्तक में की गई है। पुस्तक की भाषा सरल है और प्रस्तुति शाानुसारी होलिस्टिक (holistic) विधा से की गई है। यह पुस्तक अध्येताओं के दार्शनिक ज्ञान की अभिवृद्धि करने तथा भाषा दर्शन के अध्ययन के प्रति उनकी रूचि बढ़ाने में निश्चित रूप सें सफल हाेगी।
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इस पुस्तक में राष्ट्रवाद की पश्चिमी एवं भारतीय अवधारणा के अनुसार व्याख्या की गई है तथा दोनों में अन्तर्विरोधों एवं विशिष्टताओं को रेखांकित किया गया है। पश्चिम में परिप्रेक्ष्य रहित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही क्यों परिणत होता है और वह मानवतावाद के विरुद्ध क्यों प्रवृत्त है, यह इस पुस्तक का प्रथम प्रतिपाद्य विषय है। अद्वैत दर्शन पर आधारित सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद मानवतावाद की ओर कैसे अग्रसर होता है यह पुस्तक का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है। राष्ट्रवाद के प्रायः सभी प्रभावी विमर्शों की चर्चा के साथ-साथ यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद का एक अवधारणात्मक विमर्श प्रस्तुत करती हैए जिसे सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है। इस पुस्तक में आधुनिकता को भारत विभाजन के मुख्य कारण के रूप में स्थापित किया गया है।
इस पुस्तक में राष्ट्रवाद की पश्चिमी एवं भारतीय अवधारणा के अनुसार व्याख्या की गई है तथा दोनों में अन्तर्विरोधों एवं विशिष्टताओं को रेखांकित किया गया है। पश्चिम में परिप्रेक्ष्य रहित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित राष्ट्रवाद राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही क्यों परिणत होता है और वह मानवतावाद के विरुद्ध क्यों प्रवृत्त है, यह इस पुस्तक का प्रथम प्रतिपाद्य विषय है। अद्वैत दर्शन पर आधारित सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद मानवतावाद की ओर कैसे अग्रसर होता है यह पुस्तक का दूसरा प्रतिपाद्य विषय है। राष्ट्रवाद के प्रायः सभी प्रभावी विमर्शों की चर्चा के साथ-साथ यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद का एक अवधारणात्मक विमर्श प्रस्तुत करती हैए जिसे सर्वात्मवादी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है। इस पुस्तक में आधुनिकता को भारत विभाजन के मुख्य कारण के रूप में स्थापित किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।
यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में जूनागढ़, हैदराबाद, सिक्किम, मणिपुर, गाेवा एवं कश्मीर प्रान्ताें के अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है।
यह पुस्तक भारतीय संघ निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर्निहित प्रतिराेध एवं समायाेजन की नीति का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इसकी केन्द्राेंमुखी एवं प्रान्ताेंमुखी प्रवृतियाें के साथ समायाेजी धारा का उद्घाटन करती है। स्वतंता के पश्चात् अाैपनिवेशिक सत्ता संरचना में अाये परिवर्तन एवं उभर रही सांप्रदायिक प्रवृतियाें के बीच विभिन्न समूहाें के पहचान संबंधी प्रतिस्पर्धी दावे, मांगाें के दबाव में उलझी विकास की राजनीति एवं दलीय तथा वैचारिक निष्ठा से उत्पन्न चुनाैतीपूर्ण परिस्थितियाें के बीच नेहरु सरकार से लेकर माेदी सरकार तक भारतीय संघवाद के विकास याा की यह पुस्तक गहन मीमांसा प्रस्तुत करती है। साथ ही साथ इस पुस्तक में भारतीय संघवाद के विकास याा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद, पुर्तगाली उपनिवेशवाद, शीत युद्ध की राजनीति, संप्रदाय अाधारित जातीय पहचान एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित स्वायत्तता बाेध की जटिल रणनीतिक समीकरणाें काे भी समझने का प्रयास किया गया है।
The Gaṇitāmr̥talaharī of Rāmakr̥ṣṇa Daivajña, a seventeenth-century scholar, is a commentary on the Līlāvatī of Bhāskarācārya II, which is a splendid compilation of concepts, formulae and examples in arithmetic, geometry and algebra of the twelfth century ce. The present edition, which is critically edited with an Introduction, is based on the collation of eight manuscripts collected from different locations.
The experiences and knowledge from our past are recorded in manuscripts which have been handed down to us over several thousand years. The Government of India, through the Department of Culture, took note of the importance of this vast tangible heritage and, in order to preserve and conserve as well as to make access to this wealth easy, established the National Mission for Manuscripts (NMM). In order to disseminate the knowledge content of manuscripts, the Mission has taken up several programmes such as lectures, seminars and workshops. The Mission has published the proceedings of the above-said programmes under the following series: “Samrakshika” (on conservation), “Tattvabodha” (comprising lectures based on manuscripts delivered by eminent scholars), “Samiksika” (research-oriented papers presented in the seminars), “Kritibodha” (transcribed and edited texts prepared at advanced level manuscriptology workshops conducted by NMM) and “Prakashika” (publication of rare, unpublished manuscripts).
वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में, जिसे स्वतन्त्र रूप से प्रकीर्णक भी कहा गया हैे, अपोद्धृत पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत खण्ड में इसी काण्ड के क्रियासमुद्देश से लिङ्गसमुद्देश तक कारिका और उस पर हेलाराजकृत प्रकीर्णकप्रकाश का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक ने कहीं कहीं अर्थसंगति की दृष्टि से मूल पाठ में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और मूल की व्याख्या के लिये विस्तृत टिप्पणियाँ भी जोड़ी हैं।
क्रियासमुद्देश में भर्तृहरि ने क्रिया की अवधारणा पर विस्तार से विचार किया है। पाणिनि धातु की रूपात्मक परिभाषा देते हैं। भर्तृहरि के लक्षण के अनुसार साध्यरूप क्रमवान् अर्थ क्रिया है। इस लक्षण में प्रश्न उठता है कि “अस्ति” क्रिया की वाच्य कैसे है? सत्ता तो नित्य है, साध्य नहीं है और क्रमशून्य है। भर्तृहरि समाधान में कहते हैं कि “अस्ति” में कालानुपाती रूप का बोध होता है।
तृतीय काण्ड में यद्यपि पद और पदार्थ का विश्लेषण किया गया है तथापि भर्तृहरि की दार्शनिक दृष्टि का परिचय इस काण्ड में भी सर्वत्र मिलता है। जन्म और नाश, इन दोनों भाव-विकारों का निरूपण भर्तृहरि परिणामवाद और विवर्तवाद दोनों दृष्टियों से करते हैं। वैशेषिक दर्शन में काल द्रव्य है जो एक, नित्य और विभु है। भर्तृहरि के मत में काल ब्रह्म की मुख्य शत्तिफ़ है जो सभी शत्तिफ़यों पर नियन्त्रण रखती है। वृत्ति में इसे ब्रह्म की स्वातन्=यशत्तिफ़ कहा है। काल यद्यपि एक ही है किन्तु उपाधियों के भेद से उसमें अनेकत्व का व्यवहार होता है। वे काल से सम्बन्धित कुछ भाषिक प्रयोगों की चर्चा भी करते हैं। लिङ्गसमुद्देश में वैयाकरणों की लिङ्गविषयक अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इस विषय में वैयाकरण का अभिमत सिद्धान्त यही है कि लिङ्ग वस्तुधर्म है और सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों की अवस्था-विशेष है। इसी प्रकार अन्य अवधारणाओं से सम्बद्ध अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर इन समुद्देशों में चर्चा की गई है।
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