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Natankusam

(Ajnatakartakam) by: Radhavallabh Tripathi

650.00

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Details

ISBN: 9789380829920
Year Of Publication: 2023
Edition: 1st
Pages : xviii, 158
Bibliographic Details : Bibliography, Index
Language : Hindi, Sanskrit
Binding : Hardcover
Publisher: Indira Gandhi National Centre for the Arts
Foreword By : Dr. Sachchidanand Joshi
Size: 23
Weight: 750

Overview

Natankusa of an unknown author is a unique work furnishing a first-hand account of Kerala theatre as practised in the medieval period. It also provides vivid account of Sanskrit plays like Ascaryacudamani of Saktibhadra as taken up in performance. In his attempt at critiquing the contemporary theatre, the author makes a threadbare analysis of the practices of cakyaras – the actors of Sanskrit theatre during his times. Kudiyattam, the Sanskrit theatre of Kerala has survived in actual theatre practice for about one millennium. It is recognized as a world heritage. Offering a brilliant critique of Kudiyattam, the author of Natankusa raises fundamental questions with regard to the relationship between the sastra and the loka – the theory and the practice. The present edition of Natankusa is based on fresh manuscript material will go a long way with the students and researchers of classical Indian theatre and will also serve as a manual for the practitioners of Indian theatre according to Bharata’s Naṭyasastra.

Contents

Foreword
आमुख
Preface
आभार
संक्षिप्त नाम-सूची
भूमिका
ग्रन्थारम्भः (ग्रन्थारम्भ)

 प्रथमः अङ्कुशः (प्रथम अंकुश)
क्रियानृत्यखण्डनम्(क्रियानृत्य के समावेश का खण्डन)

१. क्रिया अभिनय एवेति पक्षस्य खण्डनम् (क्रिया अभिनय है – इस पक्ष का खण्डन)

२. क्रिया देवताप्रीत्यर्थमिति द्वितीयपक्षस्य खण्डनम् (क्रियानृत्य देवताप्रीत्यर्थ है – इस द्वितीय पक्ष का खण्डन)

३. देवताप्रीत्यर्थं क्रियेति पक्षस्य खण्डनम् (क्रिया देवता को प्रसन्न करने के लिए है – इस पक्ष का खण्डन)

४. आश्चर्यचूडामणौ विविधप्रसङ्गेषु नृत्यप्रयोगः स्याद्वा न वा? (क्या आश्चर्यचूड़ामणि नाटक के विविध प्रसंगों में नृत्य का प्रयोग अपेक्षित है?)

५. क्रिया अनुकार्यस्य स्वभावचेष्टेति तृतीयपक्षस्य खण्डनम् (क्रिया अनुकार्य की स्वाभाविक चेष्टा है – इस तृतीय पक्ष का खण्डन)

६. कथाभिनयाङ्गं नृत्यमिति चतुर्थपक्षस्य खण्डनम् (नृत्य कथा के अभिनय का अंग है – इस चतुर्थ पक्ष का खण्डन)

७. नृत्यं नाट्याभिनये शोभाजननमिति पूर्वपक्षस्य खण्डनम् (नृत्य नाट्याभिनय में शोभाजन है – इस पक्ष का खण्डन)

८. नृत्यं नटस्य प्रेक्षकस्य च संस्काराय इति पक्षस्य खण्डनम् (नृत्य नट तथा प्रेक्षक के संस्कार के लिए है – इस पक्ष का खण्डन)

९. क्रियायाः देवताप्रीतिविधायित्वे पूर्वपक्षिणः पुनस्तर्कः, तत्खण्डनं च (क्रिया देवता प्रीतिविधायिनी है – इस सम्बम्ध में पूर्वपक्षी का पुनः तर्क तथा उसका खण्डन)

१०. प्रकरणोपसंहारः (प्रकरण का उपसंहार)

द्वितीयः अङ्कुशः (द्वितीय अंकुश)
क्रियायाः पूर्वरङ्गतानिराकरणम् (क्रिया के पूर्वरंग हाेने का निराकरण)

१. पूर्वरङ्गस्य नियतभावित्वं नृत्यस्यानित्यभावित्वं च (पूर्वरंग का नियतभावित्व तथा नृत्य का अनियतभावित्व)

२. नृत्यक्रियायाः वेषभाषादिवन्नाट्याङ्गतेति पूर्वपक्षिणः पुनस्तर्कः (नृत्य वेश और भाषा आदि के समान नाट्य का अंग हो सकता है – इस पर पूर्वपक्षी का पुनः तर्क और उसका खण्डन)

३. क्रियायाः निष्प्रयोजनतेति उत्तरपक्षः (क्रिया निष्प्रयाेजन है – इस सिद्धान्त पक्ष का प्रतिपादन)

४. क्रियायाः कारणगवेषणं निरर्थकमिति पूर्वपक्षिणस्तर्कः (क्रिया के कारण की गवेषणा निरर्थक है – पूर्वपक्षी के इस मत का खण्डन)

५. क्रिया अभिधया लक्षणया वा बोध्येति पक्षस्य खण्डनम् (क्रिया अभिधा या लक्षणा से सूचित है – इस पक्ष का खण्डन)

६. क्रियायां मुनिवचनं प्रामाण्यमिति पक्षस्य खण्डनम् (क्रिया या नृत्य जोड़ने के लिए भरतमुनि का वचन प्रमाण है – इस पक्ष का खण्डन)

७. क्रियायाः साध्यत्वे हेत्वाभासाः (नृत्यक्रिया की साध्यता में हेत्वाभास)

८. आचारस्योपलब्धेः आगमप्रमाणमूलमावश्यकम् (प्रचलित आचरण के मूल में आगम प्रमाण होना आवश्यक)

९. आचारस्य स्मृतिमूलकतायां स्मृतेः प्रत्यक्षत्वमपेक्षितम् (आचार की स्मृतिमूलकता में स्मृति का प्रत्यक्ष होना आवश्यक)

१०. अप्रतिषिद्धम् अनुमतं स्यादिति मतस्य खण्डनम् (अप्रतिषिद्ध की अनुमति है – इस मत का खण्डन)

११. क्रियायाः नाट्यशास् त्राेक्तत्वस्य खण्डनम् (क्रिया के नाट्यशास् त्र प्रतिपादित होने का खण्डन)

१२. अनुक्तपरिग्रहे आगमवैयर्थतापत्तिः (अनुक्त के ग्रहण में आगम की निरर्थकता की आपत्ति)

१३. विषं भक्षयेत्यादि वाक्ये अप्रतिषिद्धस्यानुमतेः खण्डनम् (विषं भक्षय इस वाक्य में अप्रतिषिद्ध के अनुमत होने का खण्डन)

१४. पुनः पूर्वपक्षस्योत्थापनम् (पूर्वपक्ष का पुनः उत्थापन)

१५. उक्तसिद्धस्य परिग्रहो युक्त इति सिद्धान्तप्रतिपादनम् (जो उक्त है, उससे स्वयंसिद्ध होनी वाली बातों का ग्रहण उचित है – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन)

१६. अत्र पूर्वपक्षस्य शङ्का, तन्निराकरणं च (पुनः पूर्वपक्ष की शंका और उसका निराकरण)

१७. अनुक्तपरिग्रहे पुनः पूर्वपक्षोत्थापिता शङ्का तत्खण्डनं च (अनुक्तपरिग्रह पर पूर्वपक्ष की ओर से पुनः उठने वाली शंका तथा उसका समाधान)

१८. क्रियाया सन्निवेशे युक्तेरावश्यकत्वम् (क्रिया को नाट्यप्रयोग में जोड़ने के विषय में युक्ति आवश्यक)

तृतीयः अङ्कुशः (तृतीय अंकुश)
क्रियानृत्यनिरूपणोपसंहारः (क्रिया नृत्यनिरूपण का उपसंहार)

१. क्रियाया परिग्रहे सहृदयानां स्वीकृतिरस्ति वा न वा? (क्रिया नाट्य में सम्मिलित करने पर क्या सहृदयों की सम्मति है?)

२. आप्तवचनप्रामाण्यम् (क्रिया के नाट्य में सम्मिलित करने के विषय में आप्तवचन प्रमाण है)

३. संवादे तदुत्तरभाविन्यां क्रियायां सम्बन्ध आवश्यकः (संवाद और उसके पश्चात् की जाने वाली क्रिया में सम्बन्ध आवश्यक)

४. क्रियाया ित्रशङ्कुरिवानावश्यकत्वम् (क्रिया ित्रशंकु के समान अनावश्यक है)

५. पूर्ववृत्तान्ताभिनयोऽनपेक्षित इति सिद्धान्तपक्षस्थापना (पिछले वृत्तान्तों का अभिनय अनपेक्षित है – इस सिद्धान्त पक्ष की स्थापना)

६. क्रियेति संज्ञाविषये आक्षेपः (क्रिया – इस संज्ञा के सम्बन्ध में आक्षेप) चतुर्थः अङ्कुशः

(चतुर्थ अंकुश)
अङ्गुलीयाङ्के अनौचित्यपरम्परा (अंगुलीय अंक में अनौचित्य की परम्परा)

१. क्रियायाः पौर्वापर्यविषये मतिभ्रमः (क्रिया के पौर्वापर्य के विषय में मतिभ्रम)

२. पूर्ववृत्तान्ताभिनये अनवस्थाप्रसङ्गः (पूर्व वृत्तान्ताें के अभिनय में अनवस्था का दाेष)

३. चाक्यारैः प्रयुज्यमानस्य मूलनाटकस्य उपेक्षा (चाक्यारों द्वारा प्रयुज्यमान मूल नाटक की उपेक्षा)

४. चाक्यारैः सिद्धस्य ग्रहणम् असिद्धस्योपेक्षा (चाक्यारों द्वारा सिद्ध का ग्रहण तथा असिद्ध की उपेक्षा)

५. पूर्वसम्बन्धसमीक्षणम् (पूर्वसम्बन्ध की समीक्षा)

६. अस्मदर्थवैधुर्यसहितं नटनस्य समीक्षा (नट द्वारा अस्मदर्थवैधुर्य – कभी आत्मभाव तो कभी परभाव में स्थित रहकर नाट्य करने पर आपत्ति)

७. अभिनये आत्मभाव-परभाव-विवेकः (अभिनय करते समय नट के आत्मभाव और परभाव में विवेक)

८. नटेन स्वाभिनीतपाव्यतिरिक्तमन्यपास्यानुकृतौ विप्रतिपत्तिः (नट द्वारा स्वाभिनीत
पा के अतिरिक्त दूसरे पा का अभिनय करने लग जाने पर आपत्ति)

९. एकेन नटेन अनेकभूमिकापरिग्रहे आसाधारणं कौशलमिति पूर्वपक्षिणस्तर्कः, तस्य खण्डनं च (पूर्वपक्षी का तर्क कि एक नट द्वारा अनेक भूमिकाएँ एक साथ किया जाना आसाधारण कौशल है और उसका खण्डन)

१०. विकलनटने कौशलम्, अविकलनटने वेति पर्यालोचना (विकल अभिनय में कौशल है या अविकल में – इस प्रश्न पर विचार)

११. नाट्यशास् त्राेक्तनाट्यधर्मीकृताभिनयसम्मतं एकस्य नटस्य बहुभूमिकाकरणमिति पूर्वपक्षिणो वादस्य निराकरणम् (एक नट द्वारा अनेक भूमिकाएँ करना नाट्यशास् त्र
सम्मत है – पूर्वपक्षी के इस कथन का निराकरण)

१२. हनुमतो भूमिकायां नटस्य सीतानुकरणसमये चेलाञ्चलोल्लम्बने आक्षेपः (हनुमान् की भूमिका करते हुए नट का सीता का अऩुकरण करने लग जाना और आँचल पकड़ना – इस पर आक्षेप)

१३. अभिनये अनेकभूमिकासाङ्कर्येण अनार्यत्वम् (नाट्याभिनय में अनेक भूमिकाओं को एक साथ मिलाने से अनार्यत्व का आक्षेप)

१४. अनेकभूमिकाग्रहणं नृत्यं नृत्तं वेति पूर्वपक्षस्य खण्डनम् (अनेक भूमिकाएं एक नट द्वारा करने पर इसे नृत्य या नृत्त कहा जा सकता है – इस पूर्वपक्ष का खण्डन)

१५. पृथक् पृथक् भूमिकानां कृते पृथक् पृथगेव नटाः स्युरिति सिद्धान्तस्य प्रतिपादनम् (अलग-अलग भूमिकाओं के लिए अलग-अलग ही अभिनेता होंगे – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन)

१६. अनेकभूमिकाग्रहणे अनुकर्तृत्वापत्तिः (अनेक भूमिकाएं करने पर अनुकर्ता कौन होगा – यह आपत्ति)

१७. अनुकार्य-परामृश्य-विवेकः (अनुकार्य और परामृश्य में अन्तर)

१८. भावाभिनयेऽभिनेतुर्नियतत्वम् (एक पा का ही भावाभिनय एक अभिनेता द्वारा किया जाना आवश्यक)

१९. अनुकार्यानुकाेर्विवेकः (अनुकार्य तथा अनुकर्ता – पा और अभिनेता – में सम्बन्ध और अन्तर)

२०. हनुमदनुकर्तरि नटे रामादेरारोपेण अनवस्था तिरोहितत्वापत्तिश्च (हनुमान् का अनुकरण करने वाले नट पर रामादि के आरोप के कारण अनवस्था तथा अदृश्यत्व की आपत्ति)

२१. परामर्शोऽनुकरणं नास्तीति पूर्वपक्षिवादे विचारः (परामर्श अनुकरण नहीं – पूर्वपक्षी के इस कथन पर विचार)

२२. वेषविरुद्धानुकरणस्यासिद्धत्वम् (वेष या आहार्य के विरुद्ध अनुकरण करने में अनुपपत्ति)

२३. चाक्यारैर्नाट्यशास् त्राेक्तविधीनामुल्लङ्घनम् (चाक्यारों द्वारा नाट्यशास् त्राेक्त विधियों के उल्लंघन)

२४. पुनरावृत्तिदोषः (चाक्यारों की प्रस्तुति में कथा की पुनरावृत्ति पर आपत्ति)

२५. शूर्पणखाया अङ्गच्छेदे अनौचित्यम् (शूर्पणखा के नाक-कान काटते समय स्तनच्छेद
का अनौचित्य)

पञ्चमः अङ्कुशः (पञ्चम अंकुश)
मन् त्राङ्कनिरूपणम् (मन् त्राङ्क का निरूपण)

१. केरलभाषाया मिश्रणे विप्रतिपत्तिः (प्राकृत के स्थान पर मलयालम् भाषा के प्रयोग पर आपत्ति)

२. श्रृङ्गाराभासे अनौचित्यम् ( श्रृंगारभास में वेश्या के साथ ब्राह्मण के सम्बन्ध का अनुचित वर्णन)

३. राजनयप्रतिपादनेन अकाण्डप्रथनम् (राजनीति के प्रतिपादन द्वारा अकाण्डप्रथन दोष)

४. वसन्तकविहितायां वैद्यनिन्दायामनौचित्यम् (वसन्तक द्वारा वैद्यों की निन्दा करने में अनौचित्य)

५. प्रसङ्गारान्तेण अनवस्थाप्रसक्तिः (अन्य प्रसंगों काे जोड़ने से अनवस्था दोष)

६. रुमण्वदभावे प्रयोगस्य अनौचित्यम् (रुमण्वान् के पा को न दिखाने की आलोचना)

७. रुमण्वतः उपस्थितेः प्रयोजकत्वम् (रुमण्वान् की मंच पर उपस्थिति सप्रयोजन है)

षष्ठः अङ्कुशः (षष्ठ अंकुश)
उक्तपााणामप्रवेशः (सूचित कर दिए गए पाों का प्रवेश न कराना)

१. गायिकया श्लोकगानयोजनायामनौचित्यम् (प्रयोग के बीच में गायिका के श्लोक-गायन को जोड़ने में अनौचित्य)

२. सीताप्रवेशाप्रवेशपर्यालोचनम् (सीता के कहीं प्रवेश और कहीं प्रवेश न कराने की समीक्षा)

३. अयोनिजायाः प्रवेशस्य औचित्यपरीक्षणम् (अयोनिजा के प्रवेश के प्रश्न पर विचार)

४. शास्त्रप्रयोगयोः सम्बन्धसमीक्षा (शास्त्र और प्रयोग के अन्तःसम्बन्ध का विचार)

सप्तमोऽङ्कुशः (सप्तम अंकुश)
उपसंहारः (उपसंहार) 

परिशिष्ट १ – नटाङ्कुशकार द्वारा विरचित कारिकाएँ तथा श्लोक

परिशिष्ट २ – नटाङ्कुश में अन्य ग्रन्थों से उद्धृत श्लोक तथा कारिकाएँ

परिशिष्ट ३ – नटाङ्कुश में उद्धृत/उल्लिखित ग्रन्थ

सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची

Meet the Author
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Prof. Radhavallabh Tripathi is known for his original contributions to literature as well as for his studies on Natyashastra and Sahityashastra. He has published 162 books, 227 research papers and critical essays. He has received 35 national and international awards and honours for his literary contributions. He has been referred in various research journals on Indology. Research for PhD has been completed as well as is being carried on his creative writings in Sanskrit in a number of universities. Three journals brought out special numbers on his writings. Seven books comprising studies on his creative and critical writings by other authors have been published.

“Natankusam”

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